7/23/2013

एक संभावनाशील कवि का रचना-संसार

       समीक्षा
  -डॉ.अभिज्ञात

हम बचे रहेंगे/ लेखक-विमलेश त्रिपाठी/ प्रकाशक-नयी किताब, एफ-3/78-79, सेक्टर-16 रोहिणी, दिल्ली-110089/मूल्य-200रुपये 
विमलेश त्रिपाठी का पहला ही काव्य संग्रह 'हम बचे रहेंगे' इस बात के प्रति पाठकों को आश्वस्त करता है कि उनमें बहुत कुछ कहने की ताब और लियाकत है। उनका विजन बन रहा है और भाषा के मामले में भी काव्यात्मक सृजनशीलता के पथ पर हैं। उनकी कविताओं में उम्मीद भी है, जो उनकी रचनात्मकता को लम्बे समय तक ऊर्जा प्रदान करती रहेगी। साथ ही वे अपने समय की तमाम विडम्बनाओं को उसके सही परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास करते नजर आते हैं-यथा, 'गेहूं की लहलहाती/बालियों के बीच/ वह खड़ा है/सरसों के फूल की तरह/ एकदम पियराया हुआ।' यहां किसान की स्थिति को उन्होंने जिस सांकेतिक ढंग से व्यक्त किया है, वह उनकी काव्यात्मक मेधा की एक बानगी पेश करता है। वे अपनी छोटी कविताओं में भी बड़ी बात को कह लेते हैं। इसका एक और उदाहरण मां कविता का एक अंश है-'मां के सपने घेंघियाते रहे/जांत की तरह/पिसते रहे अन्न/बनती रही गोल-गोल मक्के की रोटियां/ और मां सदियों/एक भयानक गोलाई में/ चुपचाप रेंगती रही।' इस कविता सहित विमलेश की तमाम कविताओं में एक बात विशेष तौर पर लक्ष्य करने की है वह ये कि ये सीधी- सरल-सपाट नहीं हैं। सोच के रूढ़ पैमानों को ये तोड़तीं हैं। एक बेचैनी लगातार उनकी कविताओं में विद्यमान है। हर दूसरी कविता में कहीं कुछ है, जो सामान्य से इतर है। उनके नये नजरिये से असहमत हुआ जा सकता है लेकिन उनकी कविताओं में जो अंतर्विरोध और द्वंद्व हैं, उनका तनाव ही कविताओं की खासियत बन गया है। इस तरह की कविताएं मुक्तिबोध ने भी लिखी थीं। प्राय: कामकाज में जुटी मां के सौंदर्य को लेकर हिन्दी में तमाम कविताएं लिखी गयी हैं लेकिन 'कामकाज के बीच मां सदियों एक भयानक गोलाई में चुपचाप रेंगती रही' जैसी बात मुश्किल से मिलेगी। वे अपनी काव्य भाषा के नये मुहावरे गढऩे का उपक्रम करते हैं, जो एक मुश्किल काम होता है। मुक्तिबोध, धूमिल, सर्वेश्वर, धर्मवीर भारती व केदारनाथ सिंह के काव्य मुहावरों को नये अर्थों से उन्होंने लैस किया है। सामाजिक मुद्दों से सम्बद्धता, प्रेम प्रसंग, स्त्री और लोकतत्त्व ये प्रमुख मोर्चे हैं जिसके बीच उनकी कविताएं अपना जादू रचने का प्रयास करती हैं। 'जादू' शब्द उनकी कविता में अनायास नहीं आया है। यह शब्द एकाधिक बार आया है और वह भी कविताओं के सम्बंध में। विमलेश अपनी कविताओं से चमत्कृत करना चाहते हैं हालांकि इस उपक्रम में कार्य और कारण के बीच की कडिय़ां गुम होने के खतरे हैं। जादू के सम्बंध में उनकी कविताओं के अंश देखें- (एक)'समय की तरह खाली हो गये दिमाग में/या दिमाग की तरह खाली हो गये समय में/कई मसखरे हैं/ अपनी आवाजों के जादू से लुभाते।'(कविता से बाहर, पृष्ठ 105)  (दो)-'कविताओं से बहुत लम्बी है उदासी/ यह समय की सबसे बड़ी उदासी है/ जो मेरे चेहरे पर कहीं से उड़ती हुई चली आयी है/ मैं समय का सबसे कम जादुई कवि हूं।' (कविता से लम्बी उदासी, पृष्ठ 15) (तीन)-'एक ऐसे समय में/जब शब्दों ने भी पहनने शुरू कर दिये हैं/तरह-तरह के मुखौटे/शब्दों की बाजीगरी से/पहुंच रहे हैं लोग सड़क से संसद तक।' (कवि हूं, पृष्ठ 101) यह कविताएं प्रकारांतर में उनके अपने कवि-कर्म की महत्ता की स्थापना को लेकर चिन्ताएं भी हैं। कविताओं को लेकर उनकी अतिरिक्त सजगता का प्रमाण संग्रह में कई ऐसी कविताओं का होना है, जिसमें वे दुनिया जहान की तमाम बातों के बीच कविता पर बात करने से नहीं चूकते जिसमें दु:ख एक नहीं, कवि हूं, महानगर-लोकतंत्र और मजदूर, शब्दों के स्थापत्य के पार, वह नहीं लिख पाया, ईश्वर हो जाऊंगा आदि शामिल हैं। 

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