6/11/2013

इस तरह से आती है मौत

कहानी-अभिज्ञात














































































 साभारः बहुवचन, अप्रैल-जून 2013
दरवाज़े से प्रवेश करते समय पहले राधेश्याम अग्रवाल की तोंद प्रवेश करती है फिर वह दिखायी देता है। उसका एक कारण तो यही समझ में आता है कि वह खाता है तो फिर खाता है। पूरे इतमीनान के साथ। यह इतमीनान सिर्फ़ घर में खाते वक़्त ही नहीं होता बल्कि कार्यालय में भी। अपने परिचितों के बीच वह उन लोगों में गिना जाता है जो जीने के लिए नहीं खाते बल्क़ि खाने के लिए जीते हैं। घर से वह टिफ़िन लेकर आता है बाकायदा चार डिब्बे वाला। चावल, सब्ज़ी, अचार, दाल, रोटी, पापड़, मिठाई। सलाद और फल भी। वह फोल्ड किया हुआ चाकू निकालता है और पहले सलाद काटता है। फिर खाना शुरू करता है। उस वक़्त उसका पूरा ध्यान खाने पर ही होता है। इधर-उधर क्या हो जा रहा है इसकी उसे परवाह नहीं होती। थोड़ी देर बाद वह मौसम के अनुसार सेब, आम या अमरूद चाकू से काटता है..अपनी टेबल पर उसे सजा देता है फिर एक- एक टुकड़े इतमीनान से खाता है। उसे इसकी तनिक भी परवाह नहीं रहती कि लोग-बाग उसे खाते हुए देख रहे हैं और उनकी अज़ीबो-ग़रीब प्रतिक्रियाएं हो रही हैं।
कोई स्वादिष्ट चीज़ बनी हो तो वह एक ही बार में नहीं खाता। छह घंटे की ड्यूटी में वह दो बार में खाता है। अक्सर तो वह अख़बार के दफ़्तर में प्रवेश के थोड़ी ही देर बाद टिफ़िन खोल लेता है जिसके कारण उसे कई बार प्रबंधन की डांट भी सुननी पड़ी है मगर वह भोजन के प्रति अपने लोभ को नहीं रोक पाता..। कुछ लोगों का यह भी दावा है कि वह सदैव भूखा लगने वाला व्यक्ति दरअसल उतका भूखा नहीं होता। उसके कुछ दूसरे कारण हैं। वह यह कि वह ड्यूटी आने के कई घंटे पहले ही घर से निकल जाता है। महानगर कोलकाता में कई ऐसे ठेक हैं जहां वह जाता है। उसी में से किसी से लौट कर वह दफ़्तर आता है और स्वाभाविक है कि उसे भूख लग जाती है। इसलिए वह दफ़्तर में प्रवेश करता है.. दीवार पर लगी गणेश जी तस्वीर को प्रणाम करता है... कम्प्यूटर खोल कर लॉग-इन करता है और ड्यूटी शुरू। और तत्काल बाद टिफ़िन खोल देगा। जिस दिन आते ही टिफ़िन नहीं खोलेगा लोगों का अनुमान है कि जिसके यहां गया है उसने संभवतः दिव्य नाश्ता कराया होगा। तो वह टिफ़िन खोलने के बदले उसी दिन का अख़बार खोल लेगा और अज़ीबो-गरीब सी ख़बरें पढ़ेगा। कुछ सालों तक तो वह सबसे पहले यह खोजता था कि किसी चादर की दुकान का विज्ञापन या चादर के सम्बंध में समाचार तो नहीं छपा है। यदि चादर से जुड़ा विज्ञापन दिख गया तो उसका चेहरा खिल उठता। वह अपनी डायरी निकालता और उसमें चादर के तमाम डिटेल्स नोट करता। कई बार वह चादर विक्रेताओं के यहां भी पहुंच जाता था और उनसे चादरों को लेकर तरह-तरह के सवाल पूछता था। अख़बार से जुड़ा होने के कारण वह विक्रेता को समझा देता कि वह अख़बार के लिए लाइफ़- स्टाइल पर एक विशेष लेख लिख रहा है इसलिए उसे कुछ जानकारियां चाहिए। विक्रेता उत्साह के साथ उसके सवालों के ज़वाब देते मगर वे लेख कभी प्रकाशित नहीं हुए।
पिछले 6 साल से उसका चादर प्रेम कुख्यात था। चादरों के प्रति उसका रुझान देखकर लोग तरह- तरह की बातें करते और उसके कुछ क़रीबी उसे 'साइको' कहने लगे थे। राधेश्याम अपने किसी सहकर्मी के घर भी गया तो उसके बेडरूम तक पहुंचे बिना नहीं टला। लोगों को अज़ीब लगता था जब वह उनके घर पहुंचने पर बाक़ी बातों के अलावा चादर से जुड़े सवाल न पूछ ले। कहां से लिये, कितने में लिये। रंग उतरता है कि नहीं, धुलाई कितने दिन में करते है आदि- आदि। यह बात तमाम सहकर्मियों में फैल चुकी थी और लोग राधेश्याम को अपने घर बुलाने से कतराते थे क्योंकि उन्हें यक़ीन था कि वह घर की तमाम चादरों का परिदर्शन किये बिना नहीं मानेगा और उनसे जुड़े तमाम सवाल पूछेगा। घर के अन्य लोगों से भी वह हालचाल आदि सिर्फ़ इसलिए पूछता था ताकि उनसे भी चादरों पर कुछ सवाल पूछ सके।
कुछ लोगों का अनुमान था कि राधेश्याम की अतृप्त वासना का यह विकृत रूप है। यह किसी यौन-ग्रंथि से जुड़ा मनोरोग है और उसका जवाब फ्रायड को समझने वाले मनोवैज्ञानिक दे सकते हैं। कुछ ने यहां तक जोड़ा कि राधेश्याम का शरीर जितना बेडौल हो चुका है जरूर उसकी पत्नी ने उससे दूरी बना ली है। उसके यौन-सम्बंधों की कुछ यादें चादरों से जुड़ी हैं और वह चादरों से जुड़े तरह-तरह के सवालों के जवाबों को लेकर दिवास्वप्न देखता है। उसके मनोविकार का स्वरूप जटिल है।... जो भी हो मगर सुना यह गया कि कि कई बार उसने महानगर के कई प्रतिष्ठित लोगों से महज इसलिए सम्पर्क बनाये कि वह उनके बिस्तरों तक पहुंच सके और उनकी चादरें देख सके। कुछेक दफ़े तो उसने किसी सरकारी महकमे के गेस्ट हाउस, होटल या किसी आदमी के बंगले में बिछी चादरें देखने के लिए चपरासी, दरवान या नौकरों पर थोड़ा बहुत ख़र्च भी किया है या कोई बहाना बनाकर देखा है। कई बार तो चादर दिखाने के एवज़ में उनका कहीं किसी अफसर के यहां अटका काम तक करा दिया।
हालांकि राधेश्याम पहले इतने रहस्यमय चरित्र का नहीं था। वह ज़रूरत से ज़्यादा हिसाबी ज़रूर लगता था और हर चीज़ का हिसाब करने का उसे फ़ितूर सा था। उसका स्वाभाविक कारण यह था कि वह जिस समुदाय का था वहां लोग कारोबारी थे और हिसाबी होना मनोवृत्ति है। मगर कारोबारी न होने के कारण राधेश्याम का केस अलग लगता है। कई लोग उसके इस तरह के फितूर से वाकिफ़ हैं और हरेक के पास लगभग अलग तरह के उदाहरण उसके हिसाबी होने के हैं। मसलन उसे कोई फ़ोन करे या वह किसी को फ़ोन करे तो सामने वाले का नाम, बातचीत की तिथि और बातचीत की कुल अवधि व समय अपनी डायरी में दर्ज़ करता था। एक ब्लेड से कितनी बार दाढ़ी बनायी यह ब्लेड की पुर्जी पर ही लिखते जाता था और उसे बदलते वक्त जोड़ना नहीं भूलता था कि बारह बार शेव किया या या पंद्रह बार। कार्यालय में यदि किसी को बिस्कुट आफ़र करता था तो उसका नाम भी डायरी में दर्ज़ हो जाता था। कौन कितने दिन कितने मिनट लेट आया यह उस समय पता चला जब उसे लेट आने पर प्रबंधन ने नोटिस पकड़ा दी थी और उसने ज़वाब में पिछले पांच साल की ब्यौरा लिखित दिया था।
लोगों से परिचय करने को भी उसके फ़ितूर में शामिल किया जा सकता है और अख़बार में चाहे जिस काम से और चाहे जिससे मिलने कोई आये, यदि वह ज़रा भी रसूखदार लगा तो राधेश्याम उसकी बातचीत और हरकतों पर निगाह गड़ाये रखता और उसके कमरे से बाहर निकलते ही अपनी सीट से उठ जाता और इससे पहले कि आगंतुक सीढ़ियों से नीचे उतर पाये वह उसे रोक लेता। उससे परिचय करता और उसका विज़िटिंग कार्ड ले लेता। उसके बाद वह फ़ोन से उससे सम्पर्क बनाता। उसके कार्यालय या घर भी हो आता। अगली बार जब कभी वह आगंतुक फिर अख़बार के कार्यालय में आता तो वह राधेश्याम का पुराना परिचित होता अन्य लोगों की तुलना में। हद तो तब ही गयी जब यह पाया गया कि किसी बड़े पुलिस या प्रशासकीय अधिकारी का निज़ी फ़ोन नम्बर कोई व्यक्ति दूसरे को फ़ोन पर दे रहा होता और वह चुपके से वह नम्बर और नाम नोट करता पाया गया।
कुछ लोगों का यह कहना था कि पूंजीपतियों के बीच उठने-बैठने के लिए यह सब तैयारियां वह करता था। उनके बीच वह बड़े अधिकारियों से अपने सम्पर्कों का हवाला देकर अपने रसूख की धौंस दे पाता था और कई बार उनके काम भी निकलवा देता बदले में दान- दणिक्षा ख़ुद ब ख़ुद चलकर उस तक आ जाती। पूंजीपति जानते थे कि एक सामान्य उप-सम्पादक क्या कमा लेता होगा। ऐसे में उसकी ख़िदमत करते रहो तो उसके सम्पर्कों का लाभ उठाया जा सकता है।
चूंकि राधेश्याम वणिक समुदाय से था और लोग उसे चिढ़ाते कि उसने एक भोजपुरिया का हक़ मार रखा है। उसे तो कोई व्यवसाय करके खाना चाहिए था। नौकरी उसे शोभा नहीं देती। यदि वह अख़बार में पत्रकार बनने के बदले ख़ुद अपना अख़बार निकालता तो उस तबके के कुछ और लोगों को नौकरी देता जो अच्छा नौकर बनने का सपना ख़ुद भी देखते हैं और और अपनी औलाद को अपने से बेहतर नौकर बनाना चाहते हैं। यदि वह अपना अख़बार निकालता तो उसने इस अख़बार में जो जगह ले रखी है किसी ऐसे व्यक्ति को मिलती जो नौकर ही बनना चाहता है।
लोगों की टिप्पणियों के ज़वाब में राधेश्याम कहता-"बस कुछ दिन और। वक़्त-वक़्त की बात है.. मेरी बारी भी आयेगी। फिर न मुझे नौकरी करनी पड़ेगी न मेरी औलादों को।" लोगों को कई बार लगता हो न हो इस पट्ठे ने कुछ सोच रखा है और कहीं बड़ा हाथ मारने के फेर में है। लेकिन इधर जब से चादर प्रकरण शुरू हुआ है लोगों को लगने लगा कि वह डिरेल्ड हो गया है। अब तो लोग इस बात का इन्तज़ार कर रहे थे कि वह कहीं से पिट-पिटाकर न आ जाये। रोग यदि बढ़ा तो पता नहीं क्या रूप ले ले।
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सबकी आशंकाओं को राधेश्याम ने झुठला दिया। सचमुच उसकी दीनदशा में एकाएक सुधार आ गया। उसने कोलकाता में एक आलीशान फ़्लैट ले लिया। उसे छोड़ने के लिए अक्सर एक कार आती और कई बार घर ले जाने भी। उसका कहना था कि बेटा नौकरी में प्रमोशन पा गया है एक बड़ी कम्पनी में काम कर रहा है। जबकि कुछ और लोगों का कहना था राधेश्याम ने कहीं बड़ा हाथ मारा है काफी नोट हाथ आये हैं। वह रक़म तीस से पचास लाख तक हो सकती है। उसके कपड़े, उसका खान-पान, उसका ख़र्च करने का अंदाज बदल गया है। कहते हैं कि पैसा बोलता है., और राधेश्याम के मामले में भी यह सच था। दूसरा सच यह भी था कि पैसा आने के बाद से राधेश्याम का मनोरोग भी जाता रहा। अब वह भूले से भी चादरों की बात नहीं करता था। ना ही उससे जुड़े आंकड़े जुटाता था।
उसके सहकर्मियों ने महसूस किया कि वह कुछ-कुछ आध्यात्मिक सा होता जा रहा है। वह जीवन की नहीं मृत्यु की बातें अधिक करता है। लोगों का कहना था कि ऐसा ग़रीब आदमी जिसे अमीर बनने की कत्तई आस न हो अमीर बन जाता है तो वह आध्यात्मिक हो ही जाता है। लेकिन यह बातें अधिक दिन नहीं टिक सकीं।
राधेश्याम में एक नया मनोरोग उभरने लगा। अब वह मौत के आंकड़े जुटाने लगा था। अख़बार खोलते ही वह मौत से जुड़ी खबरें और मौत से सम्बंधित विज्ञापनों को रस ले लेकर पढ़ता और उसके आंकड़े अपनी डायरी में दर्ज़ करता था। मौत की ख़बरें पढ़कर वह उदास नहीं होता था उसके चेहरे पर मुस्कुराहट फैल जाती थी। कई बार तो वह खुले आम कहता-"भाई जी आप मानिये जा न मानिये मगर हम मौत की कमाई पर जी रहे हैं जितना उठावने और बरसी के विज्ञापन आते हैं उतने और किसी के नहीं आते। आज भी तीस परसेंट विज्ञापन सिर्फ मौत के हैं। मौत के विज्ञापन पर कोई मोलभाव नहीं करता। लोग देर रात तक सिफारिश करते रहते हैं कि किसी तरह इसे आज ही लगवा दो। हमारे रिश्तेदार की मौत की खबर हम चाहते हैं कि लोगों को कल के ही अख़बार से पता चल जाये। इन विज्ञापनों में वारिसनामे से जुड़े कई मसले भी होते हैं और जिन पर प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष तौर पर हक़ जताना होता है। शोकाकुल लोग अपनी तमाम कम्पनियों का नाम भी देना नहीं भूलते ताकि लगे हाथ कम्पनी की पब्लिसिटी भी हो जाये। बराबरी के लोगों पर रौब भी ग़ालिब हो जाये कि हम छोटे मोटे लोग नहीं हैं। देखा कितना बड़ा विज्ञापन छापा है हमने अपने पिता की मौत का। संस्कृत के श्लोक, कोई अच्छी सी कविता की पंक्ति और अपने प्रिय के बिछुड़ जाने का शोक- संतप्त संदेश के साथ मरने वाले की मुस्कुराती तस्वीर एक गज़ब का कंट्रास्ट रचती है।"
कुछ खुराफ़ाती समझे जाने वाले पत्रकारों का कहना था कि राधेश्याम मृत लोगों को परिजनों के पते व कम्पनियों के नाम व फ़ोन नम्बर ही नहीं दर्ज़ करता था बल्क़ि वह मौत से जुड़ी रस्मों में भी जाता था। मृतक के रिश्तेदारों से यह बताना नहीं भूलता था कि मरने वाले से उसके गहरे ताल्लुक व मेल मुलाक़ात थी, भले वह कभी न रही हो। अब मरने वाला तो यह स्पष्ट करने से रहा कि वह सरासर झूठ बोल रहा है। अलबत्ता उसके परिजनों से इसी बहाने सम्बंध ज़रूर बना लेता था और मृतक से अपने सम्बंधों का हवाला देकर अपने कई काम साध लेता था।
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एक दिन उसने सबको चौंका दिया। उसने अख़बार में वालेंटियर रिटारमेंट के लिए आवेदन कर दिया। प्रबंधन ने इस सम्बंध में प्रस्ताव आमंत्रित ज़रूर किये थे किन्तु किसी को उम्मीद नहीं थी कि वह भी आवेदन कर सकता है। एक ढंग से वह काम के प्रति संजीदा कतई नहीं था। उसका रवैया किसी भी काम के प्रति इतना रूखा और टालमटोल वाला था कि उसे सम्पादित करने के लिए बहुत ही कम महत्व की और कम से कम ख़बर दी जाती थी। लोगों का कहना था कि जो वेतन वह ले रहा है वह लगभग मुफ़्त का है। वह आख़िर करता है ही क्या है, बाल की खाल निकालने के अलावा। यह सही है कि इस रवैये के कारण उसका प्रमोशन नहीं हुआ फिर भी लम्बे अरसे तक काम करने के कारण साधारण इक्रीमेंट से भी उसका वेतन काफ़ी हो गया था। उसके कम वेतन पर होनहार लड़के काम कर रहे थे और महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारियां भी उठा रहे थे।
सबने समझाया-"राधेश्याम जी, क्या बेमतलब वालेंटियर रिटारमेंट ले रहे हैं। सात-आठ साल और रह गये हैं फिर तो अपने आप रिटायर हो ही जायेंगे। आराम की ज़िन्दगी कट रही है। कटने देते।"
पर उसने एक न सुनी। कोई साफ़ कारण भी नहीं बताया।
कुछ ने कहा-" बेटे की कमाई पर ऐश करने का विचार है।"
दूसरे कुछ का कहना था- "कहीं लम्बा हाथ मारा है। पैसा धीरे-धीरे दिखायी देगा।"
जितने मुंह उतनी बातें..... पर राधेश्याम ने रिटारमेंट ले लिया।
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लगभग एक साल बाद एक दिन अख़बार में राधेश्याम कार्ड बांटने आया। यह उसके बेटे की शादी का कार्ड नहीं था। यह उसकी क़िताब के लोकार्पण के न्योते का कार्ड था। लोकार्पण कोलकाता प्रेस क्लब में होना था। किताब को एक अंग्रेज़ी के एक विख्यात प्रकाशक ने प्रकाशित किया था, जिसने हाल ही में हिन्दी में भी क़िताबें प्रकाशित करनी शुरू की थी। क़िताब हिन्दी व अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में थी जिसे हिन्दी मूल में राधेश्याम ने लिखी थी और अंग्रेज़ी अनुवाद किसी एनआरआई महिला ने किया था।
क़िताब मौत के बारे में थी। प्रेस क्लब में जब राधेश्याम ने पत्रकारों को सम्बोधित किया और पुस्तक की मूल स्थापनाओं की चर्चा की की तो मी़डिया मौत के सम्बंध में उसके विशद अध्ययन और शोध का लोहा मान गया। राधेश्याम ने तथ्यों का हवाला देते हुए यह स्थापित किया था कि एक मौत का दूसरी मौत से गहरा ताल्लुक होता है। किसी की शवयात्रा में जाने से मौत के ख़तरे रहते हैं। जाते वक़्त या लौटते वक़्त सड़क दुर्घटनाओं में मौत होती है। इसी प्रकार लोगों की नींद और मौत के बीच गहरा ताल्लुक है सामूहिक निद्रा मौत को आमंत्रित करती है। चूंकि सबसे गाढ़ी नींद तड़के होती है इसलिए उस समय लोगों की दुर्घटना में मौत की संभावना सबसे ज्यादा होती है। धार्मिक क्रियाकलापों का भी मौत से गहरा ताल्लुक होता है और तीर्थयात्राएं लोगों की मौत की यात्रा में कभी भी तब्दील हो सकती है क्योंकि तीर्थयात्री परलोक के बारे में सामूहिक तौर पर सोचते हैं इसलिए परलोक से उनके तार जुड़ जाते हैं जो मौत का कारण बनते हैं और सड़क दुघर्टनाएं या भगदड़ आदि की घटनाएं मौत का बहाना बनती हैं। उसने यह भी अध्ययन प्रस्तुत किया कि किसी घर में एक मौत कैसे कई और लोगों की मौत का आह्वान करती है। किन खास परिस्थितियों में किस उम्र के व्यक्ति की अकाल मौत होती है। किसी को मौत का पूर्वाभास किस-किस रूप में होता है। कौन सा मौसम, कौन सा दिन, कौन सा समय मौत के लिए तय होता है। मौत से जुड़े संकेतों की सूक्ष्म से सूक्ष्म व्याख्या उसने की थी। जिंदगी को निरुद्देश्य मानने वाले या किसी एक चीज़ या व्यक्ति को सर्वोपरि मानने वाले व्यक्तियों में तुलनात्मक रूप से हत्या या आत्महत्या करने की गुंजाइश अधिक होती है। आत्महत्या के लिए मौसम भी जिम्मेदार होता है और हल्की बारिश ऐसे लोगों का अकेलापन बढ़ाता है और आत्महत्या के लिए प्रेरित करता है।
मौत अपनी से जुड़े कार्यों से शोहरत बहुत मिलती है बशर्ते वह उससे विपरीत कार्यों में निवेश किया जाये। उसका एक बड़ा उदाहरण नोबेल शांति पुरस्कार के अधिष्ठाता एल्फ्रेड नोबेल हैं, जिन्हें लोग मौत का सौदागर भी कहते थे और जो शांति दूत कहलाना चाहते थे। लॉर्ड डाइनामाइट कहलाने वाले नोबेल एल्फ्रेड ने विस्फोटकों से खूब कमाया और उस संपत्ति को भौतिकी, रसायन, चिकित्सा, साहित्य और शांति के क्षेत्र में उत्कृष्ठ कार्य करनेवाले व्यक्तियों को पुरस्कार में देने की वसीयत की।
सच तो यह है कि मृत्यु को नियंत्रित करने के ख़तरनाक़ नतीज़े सामने आयेंगे और यह युवा दुनिया बूढ़ी दुनिया में तब्दील हो जायेगी। मृत्यु के मामले में विज्ञान के हस्तक्षेप के कारण जन्मदर का अनुपात मृत्यु दर के अनुपात से अधिक है। जिसके कारण आने वाले समय में जो ज़िन्दा लोग हैं तमाम परेशानियां झेलते हुए अधिक दिन तक ज़िन्दा रहेंगे। युवाओं की संख्या कम हो जायेगी। ये बुजुर्ग युवाओं की ज़िम्मेदारियों का बोझ बढ़ायेंगे। इस तरह एक बूढ़ी दुनिया का निर्माण होने जा रहा है। सब कुछ बूढ़ों की सुविधा के लिए होगा। सारी कम्पनियां बूढ़ों को ध्यान में रखकर उत्पाद बनायेंगी जिससे विकास की गति रुकेगी। बूढ़े बहुत दिनों तक ज़िन्दा रहेंगे लेकिन मौत के बारे में सोचते हुए। मौत के बारे में लगातार सोचना अस्वस्थ मानसिकता का परिचायक है। बुजुर्गों की संख्या बढ़ने से एक अस्वस्थ समाज जन्म लेगा जिसमें विज्ञान नहीं आध्यात्म केन्द्रीय तत्व होगा। इसलिए भविष्य का निवेश आध्यात्म पर भी होगा, जो विकास की दशा को पीछे की ओर मोड़ देगा। युवता की सबसे बड़ी पहचान उसका जोख़िम उठाने का माद्दा है। जो जोख़िम नहीं उठा सकता वह कुछ भी नहीं रच सकता। बुजुर्गों की तुलना में स्वाभाविक तौर पर युवाओं की जीवन रेखा लम्बी होती है किन्तु वे अपनी जान से खेल जाते हैं।
एक बीमार दुनिया से बचना हो तो मौत पर नियंत्रण बंद करो,  इससे जनसंख्या में वृद्धि होती है। यदि बेहतर जीवन चाहिए, बेहतर दुनिया चाहिए तो लोगों सो स्वाभावित मौत मरने दो। वरना किलकारियां कम गूंजेंगी और कराहें ज्यादा। जन्म देना रोक नहीं सकते और मरना रोक दिया तो गड़बड़ हो जायेगी। मृत्यु पर विजय को मनुष्य कभी न कभी पा ही लेगा लेकिन वह दिन कयामत का दिन होगा। इसलिए ज्यादातर धर्म ग्रंथ सिखाते हैं मृत्यु तय है। पुराने शरीर को विदा करो। पुराने मन को विदा करो। धर्मग्रंथ मृत्यु से डरना नहीं सिखाते। मृत्यु से डर गये तो जीने की कोशिश करोगे और जीते ही रहे जो दुनिया किसी के भी जाने लायक नहीं रह जायेगी। धर्मग्रंथ दरअसल लोगों को मृत्यु के लिए तैयार करने का ही काम करते हैं। वे मौत के सौदागर हैं। यदि इनसान ठान ले कि नहीं उसे नहीं मरना है तो अमरत्व पा ही लेगा। लेकिन धर्म सिखाता है इससे भी बेहतर एक दुनिया और है। यह दुनिया गयी तो कोई बात नहीं इससे बेहतर दुनिया में भेजने का इन्तज़ाम किये देते हैं। इससे खराब दुनिया भी है। बुरे कर्म करोगे तो वहां जाना पड़ेगा। मगर यहां टिके रहने का मत सोचो। उसका कोई उपाय नहीं है। धर्म ग्रंथ न होते तो शायद मनुष्य अब तक मृत्यु पर विजय प्राप्त कर चुका होता। मृत्यु का यह सिद्धांत विज्ञान की गति की दिशा को चुनाती था और विज्ञान की इकहरी समझ उसके विनाश का कारण बनने जा रही है और आध्यात्म का विकास होगा। और आध्यात्म ने मौत की अवधारणा को स्वीकार्य बनाकर पहले ही विज्ञान को कमजोर किया है।
चूंकि मौत ऐसा विषय था जिसका सम्बंध तमाम धर्मग्रथों से था तमाम स्वास्थ्य चिन्ताओं के केन्द्र में था। दुनिया के हर व्यक्ति की दिलचस्पी का यह विषय था इसलिए इस किताब को हाथोंहाथ लिया गया।
राधेश्याम अब स्टार लेखक था। उसकी मौत पर लिखी किताब ने बिक्री के नये कीर्तिमान स्थापित किये।
इसके साथ ही विवादों ने भी सिर उठाया। उसकी स्थापनाओं को धर्म से जुड़े विद्वानों ने चुनौती दी क्योंकि यह मृत्यु सम्बंधी शास्त्रों की कई मान्यताओं को ठेस पहुंचा रहा था। मनोविज्ञान व चिकित्सा से जुड़े विद्वान भी उसकी स्थापनाओं से असहमत थे और पुस्तक स्थापनाओं को कोरी गप करार दे रहे थे और मौत के सम्बंध में अंधवि·ाासों को बढ़ावा देने का आरोप लगा रहे थे। धार्मिक उत्सवों मेलों से जुड़े पुरोहितों की अपनी असहमतियां थीं क्योंकि यह पुस्तक लोगों को धार्मिक समारोहों में जाने से रोक रही थीं। पुस्तक पर रोक के लिए कई स्तरों पर प्रदर्शन होने लगे, उसकी प्रतियां जलाई जाने लगीं और उस पर प्रतिबंध की मांग उठने लगी। जिसका नतीजा क़िताबों की बिक्री को और बढ़ाता गया। किसी को अन्दाजा नहीं था कि भारत में इस पुस्तक पर भले तीखी आलोचना हो रही हो पश्चिम इस किताब को तूल नहीं देगा लेकिन उल्टा हुआ। जिस देश में भी यह किताब गयी वहां किसी ने किसी स्तर पर चुनौती बन गयी। कई देशों में उस पर प्रतिबंध लगे। राधेश्याम इन सबसे बीच एक चर्चित हस्ती बन गया था। किताब की रायल्टी से ही वह नहीं कमा रहा था बल्कि वह विदेश में भी तमाम समारोहों में अपनी क़िताब की मौत सम्बंधी स्थापनाओं  वक्तव्य देने के लिए बुलाया जाने लगा। कई लोग उसे अपना गुरु मानने लगे थे और अपने प्रियजनों की मौत या उसके बाद उनके सम्बंध में उससे अपनी शंकाओं का समाधान चाहते थे।
अब उसकी उसकी जायदाद करोड़ों में थी और उसका शुमार संतों और दार्शनिकों के बीच किया जाने लगा था। हालांकि मीडिया में ऐसी खबरें भी आयीं कि उसने उपभोक्ता वस्तुओं के उपयोग के सम्बंध में शोध किये थे और उन्हें उत्पादकों को बेचकर काफी पैसा बनाया था जिसमें चादरों के सम्बंध में किया गया अध्ययन भी शामिल था। उपभोक्ताओं द्वारा चादरों के उपयोग के सम्बंध उसने जो अध्ययन प्रस्तुत किया था उसके बाद चादरों के रंग, उस पर छपी डिजाइनें, उसके कपड़ों आदि में काफी बदलाव लाया गया। उसके अध्ययन का ही कमाल था कि विक्रेता उपभोक्ता से बात कर पहले ही ताड़ जाता था कि वह क्या पसंद करने वाला है और उसे सामान्य से ऊंची दर पर बेचकर मुनाफा कमाने में कामयाब रहा।
चीन ने पुस्तक पर इसलिए प्रतिबंध लगा दिया क्योंकि उसे ख़तरा था कि वहां सरकार की नीतियों के खिलाफ आम जनता बगावत कर देगी। पुस्तक में कहा गया था कि वहां एक बच्चे के नियम के कारण स्वाभाविक तौर पर एक दम्पत्ति में एक ही औलाद हो गयी अर्थात दो व्यक्ति से एक ही व्यक्ति जन्म लेगा। यदि सब कुछ सामान्य रहा तो यूं ही कुछ वर्षों बाद आबादी आधी हो जायेगी। दूसरे हर दम्पति पर हर युवाओं के बीच एक बच्चा होगा और उसके संयुक्त परिवार में होंगे पति के प्रौढ़ या वृद्ध माता-पिता और सास-ससुर। जिनकी देखरेख आवश्यक होगी। इसके चलते युवाओं पर बुजुर्गों की देखरेख सम्बंधी अनन्त जिम्मेदारी का बोझ होगा जिसके कारण जोखिम उठाने की उसकी क्षमता क्षीण होगी। जो बच्चा अपने परिवार में अकेला होगा मनोवैज्ञानिक रूप से वह उन बच्चों की तुलना में कम प्रतिस्पर्धी होगा, जो बहुत सारे बच्चों वाले परिवेश में पलता है। अन्य बच्चों के साथ खेलने, खाने, अपने विचारों को साझा करने के सहज वातावरण वह तुलनात्मक रूप से वंचित रहेगा जो उसके विकास को प्रभावित करेगा और वह दूसरों से सम्पर्क स्थापित करने में कमजोर होगा। उसका बचपना अनायास ही खो जायेगा जिसका असर पूरी जिन्दगी उसके व्यवहार पर रहेगा क्योंकि उसने अपने जीवन का अधिकांश समय बुजुर्गों या वयस्कों के बीच गुजारा है।
इसकी तुलना में वह समुदाय प्रकृति के अधिक करीब होगा जिसका बचपन स्वाभाविक तौर पर अपने समवयस्कों के बीच अधिकाधिक बीता हो। बच्चे अपने माता-पिता, दादा-दादी की तुलना में अपने भाई बहनों से अधिक सीखते हैं। उनका साहचर्य उन्हें हर तरह से अधिक विकसित करता है। घर में कोई कम वस्तु हो तो उसके विभाजन को लेकर बच्चों की जो प्रतिक्रिया होती है वह उसे समूह में जीना सीखाती है। एक किस्म की प्रतियोगिता भी उनमें होती है जिसके वे विविध दिशाओं में आगे बढऩे को प्रेरित होते हैं। इसलिए आने वाला समय इस्लाम को मानने वालों का है क्योंकि उनके परिवारों में बच्चे अधिक होते हैं। इन बच्चों में प्रतियोगिता में टिके रहने का हुनर और चीजों को साझा करने की प्रवृत्ति स्वाभाविक तौर पर उन्नत रहती है। वे इस वातावरण के कारण बचपन से ही जुझारू भी होते हैं। चीन के पतन और इस्लाम से वर्चस्वपूर्ण स्थिति की भविष्यवाणियों के कारण यह पुस्तक सनसनीखेज बन गयी। कुछ विश्लेषकों का यह भी मत था कि भारत चीन को मनोबल तोडऩे के लिए कुप्रचार व प्राक्सी वार में लगा हुआ है क्योंकि सर्वशक्तिमान राष्ट्र बनने की दौड़ में चीन ही भारत को मात दे सकता है।
कुछ अन्य विश्लेषकों का मानना था कि यह तेल के कुओं का प्रताप है और इस ग्रंथ से इस्लाम का प्रचार प्रसार बढ़ाने की योजना को अंजाम दिया जा रहा है। यह उस धर्म के वर्चस्व की होड़ का औजार है जो ईसाईयत और इस्लाम के बीच जारी है। विवाद के बढऩे के बाद इस्लाम को मानने वालों के बीच यह किताब खूब बिकी और उसे सम्मान की निगाह से देखा जाने लगा और इन्हीं कारणों से अमरीका व कुछ अन्य देशों में इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
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