3/06/2013

जब दरवाज़ा बनता था


साभारः वागर्थ, कोलकाता, नवम्बर 2013 

जब बेचन अड़तीस का हुआ तो एकाएक बेचैन हो उठा। उसके पिता ने उससे जो कुछ अंतिम समय में कहा था वह याद आने लगा। उसके पिता ने उससे वचन लिया था कि वह गांव के स्कूल में एक दरवाज़ा लगायेगा। उसके पिता स्कूल में शिक्षक थे और पेड़ के नीचे लगने वाला स्कूल उनके जीते जी दो कमरों के स्कूल में तब्दील हो चुका था। गांव के गरीब बच्चों की फीस से ही उनका और उनके एक सहकर्मी का वेतन मिलता था जिससे उनके घर का चूल्हा ही मुश्किल से जलता था। इतना नहीं बचता था कि वे उसमें से स्कूल को भी कुछ दे पायें। अलबत्ता एक विधवा ने अपनी ज़मीन स्कूल के नाम दे दी थी जिस पर स्कूल चलता था। गांव में हर वर्ष चंदा जुटता और धीरे-धीरे दो कमरे भी बन गये। इसी में उनकी उम्र निकल गयी। जब वे स्कूल सुबह पहुंचते तो पाते कि कमरे में आवारा भटकते मवेशियों ने गंदगी कर रखी है। उम्र हो जाने के कारण अब लोगों से चन्दा जुटा पाने की सामथ्र्य नहीं बची थी। वे सोचते थे कि काश उनके पास पैसा होता तो वे एक दरवाज़ा इस स्कूल में अपने पैसों से लगा देते। मरते समय उन्होंने अपने बेटे बेचन से बस यही मांगा था कि जब वह कमाने धमाने लगे तो स्कूल में उनके नाम पर एक दरवाज़ा अवश्य लगा दे।
पिता की मौत के बाद बेचन कम उम्र में ही ठेला खींचने के काम में जुट गया और एक बार काम का बोझ जो उसके कंधों पर पड़ा तो कभी हलका नहीं हुआ। उसकी शादी हुई, बच्चे हुए। मशक्कत भरी ज़िन्दगी जीते हुए वह अपने परिवार के भरण पोषण में जुटा रहा। देखते देखते बीस बरस कट गये। बच्ची सयानी होने को आयी। दो एक साल में उसकी शादी करनी होगी। बेटा दूसरे नम्बर पर है और अब मैट्रिक में जायेगा। हर साल वह अपने पिता की बात पर अमल करने की कोशिश करता मगर विफल रहता। पाई- पाई जोड़ता मगर कोई न कोई काम सामने आ जाता और अपने पिता की इच्छानुसार स्कूल में दरवाज़ा लगाने की योजना खटाई में पड़ती चली गयी। उसे लगा अब यदि वह अपने पिता को दिया हुआ वचन पूरा नहीं करता है तो बहुत देर हो जायेगी। दो-एक साल में बेटी के हाथ पीले करने होंगे तो जो रुपये बचेंगे वे उसी काम में लग जायेंगे। फिर क्या पता पता बेटे की फरमाइशें किस तरह की हो जायें और वह अपने पिता की जिम्मेदारियों को पूरा करने में विफल हो जायेगा। उसने तय किया कि बेटी के हाथ पीले करने से पहले यानी संतान के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वाह करने के पहले ही वह अपने पिता के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को पूरी करेगा।
उसे याद आया वह एक ही गांव में रहते हुए भी बरसों से उस स्कूल में शर्म के कारण नहीं गया है जहां उसे दरवाज़ा लगाना है। अब तो उसे स्कूल की बनावट तक याद नहीं। वैसे भी प्राइमरी के शिक्षक का बेटा होने के बावजूद वह निरक्षर ही रह गया। वह बचपन में अपनी मां के साथ अपनी ननिहाल गया। उसे वहां इतना प्रेम मिला और शरारत करने की इतनी छूट कि वह अपनी नानी के यहां ही चार साल लगातार रह गया। और जब लौटा तो उम्र बढ़ी होने के कारण शर्म के मारे वह स्कूल नहीं गया। धत्त छोटे-छोटे बच्चों के साथ वह क्लास में नहीं बैठेगा, उसने पिता से ज़िद पकड़ी और स्कूल में पहले दिन ही वह गया जो आखिरी दिन साबित हुआ। अब उसे लगता है कि यदि वह स्कूल गया होता तो ठेला खींचने की हाड़तोड़ मेहनत से वह बच गया होता।
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बेचन फिर विफल रहा। अतिरिक्त खट कर उसने जो पैसे जुटाये पत्नी की आकस्मिक बीमारी उसे लील गयी उल्टे कुछ कर्ज़ ही उस पर चढ़ा गयी। दिन भर की थकान के बाद वह पहले बेसुध सोता था किन्तु अब उसकी आंखों से नींद ग़ायब थी। वह रात-रात भर करवटें बदलता और सोचता रहता अपने पिता को दिये वचन के बारे में। तो क्या वह भी अपने पिता के अधूरे काम अपनी संतान के भरोसे ही छोड़ जायेगा। जागते- जागते वह एकाएक कब सो जाता पता नहीं चलता था किन्तु वह नींद में केवल दरवाज़े देखता। अलग-अलग दरवाज़े। जैसे किसी स्वप्न लोक के हों। फिर यूं हुआ कि दरवाज़ा खुलने लगा और वह उसमें प्रवेश कर जाता। अन्दर एक स्वप्नमय दुनिया होती। वह उसमें विचरण करता। दुनिया की सारी सुख सुविधाएं उस दुनिया में होतीं जिसमें वह दरवाज़े से प्रवेश करता था। कई बार तो वहां उसकी पत्नी, बेटी और बेटा बड़े मज़े करते। वह स्वप्न में देखता दरवाज़े पर अजब की नक्काशी की गयी है। नींद खुलती और वह दरवाज़ा ग़ायब हो जाता और वह दुनिया भी जहां उसे सुकून मिलता, जहां उसकी हर ख्वाइश पूरी होती।
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बेचन ने सोचा क्यों न पहले दरवाज़े की क़ीमत का अन्दाज़ा लगा लिया जाये फिर देखा जायेगा कि उतनी रक़म कहां से आयेगी। वह पास के कस्बे में गया दरवाज़े की क़ीमत का अन्दाज़ा लगाने। लेकिन यह क्या क़ीमत तो छोड़ों उसे कोई दरवाज़ा पसंद ही नहीं आया। हालांकि उसकी ज़ेब खाली थी लेकिन उसे क़ीमती से क़ीमती लकड़ियों के नक्काशीदार दरवाज़े दिखाये गये। उसे कोई नहीं जंचा। एकदम नहीं जंचा। अन्ततः उसने तय किया कि वह साइकिल से दस कोस दूर बड़े कस्बे में जायेगा। शायद वहां उसकी पसंद का दरवाज़ा मिल जाये। वह पसंद के फेर में यह भूल बैठा था कि उसे उस रकम का भी इन्तज़ाम करना होगा। वह जितने दरवाज़े देखता गया अपनी पसंद के दरवाज़े की खोज के प्रति उसकी ललक उतनी ही बढ़ती गयी। उसने मन के किसी कोने में यहां तक सोच लिया कि यदि उसे उसकी पसंद का दरवाज़ा मिल गया तो वह अपनी जीवन भर की संचित वह राशि उस पर खर्च कर देगा जो उसने अपनी बेटी की शादी के लिए रख छोड़ी है। दरवाजे का उसके पिता का सपना कब उसका अपना सपना बन बैठा था पता नहीं चला।
शहरनुमा बड़े कस्बे में भी उसकी अभिलाषा पूरी नहीं हुआ और उसकी पसंद का दरवाज़ा नहीं मिला तो नहीं मिला। दरअसल वह अपने सपने में जो दरवाज़ा देखता आया था उसके आगे यह दरवाज़े तुच्छ और हेय लगते थे और आकार-प्रकार में छोटे।
उसमें अब जो बचैनी समायी उसका अन्त नहीं था। उसे वह दरवाज़ा चाहिए था जो कहीं मिल नहीं रहा था। वह लगातार सोचता रहा अपनी पसंद के दरवाज़े को पाने की जुगत के बारे में। वह अपने पुश्तैनी जीर्णशीर्ण घर के सामने के पेड़ के नीचे सोया था। झुर झुर हवा बह रही थी और रात चांदनी थी। एकाएक उसकी नींद खुली और उसे पेड़ में अपने स्वप्न में देखे गये दरवाज़े की झलक सहसा मिली। यह वही पेड़ था जिसकी पूजा उसके परिवार के लोग हमेशा से करते आये थे। उसके दादा जी ने घर के सामने यह बेशकीमती लकड़ी का पेड़ लगाया था। वह तो ठीक से उसका नाम तक नहीं जानता और ना ही यह जानता है कि उसका पौधा उसके दादा जी को कैसे प्राप्त हुआ। बस इतना जानता है कि उनका परिवार इस पेड़ के लगने के बाद से देवी देवताओं की नहीं इसी पेड़ की पूजा करते हैं और जो कुछ मांगना होता है इसी पेड़ से मांगते हैं। उसने बस इतना सुना था कि वह ज़मीन जिस पर उसका घर और यह पेड़ खड़ा है उसकी कीमत कम है और अकेले इस पेड़ की कीमत उससे कहीं ज्यादा। कई लोगों ने उससे इस पेड़ को खरीदने का भी प्रस्ताव रखा था, जिससे उसने इनकार कर दिया था।
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उस रात के बाद बेचन की ज़िन्दगी बदल गयी। अब वह ठेले वाले से एक प्रशिक्षु बढ़ई बन गया था। उसे समझाया गया भला यह कोई उम्र है नया काम सीखने की। यह तो बचपन से सीखा जाता है और स्वतंत्र रूप से लकड़ी की कारीगरी का कोई काम करने में पांच से दस साल लग जाते हैं फिर भी कई लोगों को तरीके से काम करना नहीं आता। यह चालीस होती उम्र में बढ़ई का काम सीखने की क्या तुक है। लेकिन बेचन था कि उसने कुछ और ही ठान रखा था। ठेला खींचने से होने वाली कमाई बंद हो गयी। बढ़ई के यहां बतौर सहयोगी काम करके उसे जो मिलता वह पिछली आय की तिहाई भी नहीं थी। फिर भी यह हुआ कि वह जिस कारीगर से काम सीख रहा था वह प्रसन्न था। ऐसी लगन से काम सीखने वाला उसे क्या किसी को नसीब नहीं होगा। वह जल्द से जल्द सब कुछ सीखने में जुटा हुआ था। वह हर काम इतनी लगन से करता जैसे वह अपना ही काम कर रहा हो। खाली समय में भी वह लकड़ी की नक्काशी के सम्बंध में तमाम सवाल पूछता रहता था। काम पर वह समय से पहले पहुंचता था और जब तक न कहा जाये, घर नहीं लौटता था। काम के बोझ की शिकायत की तो खैर कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।
दरवाज़े खिड़की का काम करने वाले बढ़ई का काम सीखने से ही उसे संतोष नहीं हुआ। उसने एक बुजुर्ग काष्ट-शिल्पी से काम सीखना शुरू किया जो खिलौने बनाता था। वह बनारस का कलाकार था। उसे इस बात का गर्व था उसकी कला भी वाराणसी के रेशमी वस्त्रों के निर्माण की कला के समान ही वंदनीय है। इस धंधे को उसके पूर्वज बहुत ही प्राचीन काल से करते आ रहे थे। उसका कहना था कि बनारस की काष्ठ-कला दो-चार सौ वर्ष पुरानी परम्परा नहीं है बल्कि यह तो 'राम राज्य' से भी पहले से चली आ रही है। जब राम और उनके भाई बच्चे थे तो भी वे लकड़ी के बने खिलौने से खेलते थे।
बिजली के मोटर से चलने वाले खराद मशीन को तो वह खरीद नहीं पाया लेकिन छोटे मोटे तमाम उपकरण उसने खरीदे और उनका प्रयोग भी सीखा। उसने जाना कि काष्ठ कला में प्रयोग होने वाले उपकरण हैं-रुखाना, चौधरा, प्रकाल, गौन्टा गबरना, छेदा, छेदी, फरुई, तरघन, बघेली, खरैया, चौसा बोरिया, बाटी, पटाली, चौसी, बर्मा, बर्मी, बसुला आदि। रुखाना से लकड़ी को पतला किया जाता है। चौधरा से चिकना किया जाता है। पटाली से बने हुए वस्तु को काटकर अलग किया जाता है। बरमा और बरमी से छेद किया जाता है। बाटी से (बरमा से छेद करने के बाद) अन्दर की खुदाई की जाती है। वसुला का प्रयोग लकड़ी को छीलने के लिए किया जाता है। आकृति तथा डिजाइन बनाने के लिए प्रकाल की सहायता ली जाती है। गौन्टा से खराद मशीन में लगे बचे हुए लकड़ी को हटाने का काम किया जाता है। फरुई लोहे का सपाट सा होता। इसका प्रयोग औजार को रखकर 'काष्ठ-कला' को बनाने के लिए होता है। तरघन फरुई के लकड़ी के नीचे का बेस होता है। बघेली मोटी लकड़ी से बना होता है जो कुनिया मशीन तथा फरुई के लिए सहारे का काम करता है। बघेली दो होता है: अगला बघेली, पिछला बघेली। खरैया पत्थर का बना होता है। इसका प्रयोग औजार को पीजाने के लिए किया जाता है। अगर औजार की धार को और अधिक बारीक करना हो तो बोरिया का प्रयोग किया जाता है।
बेचन के गुरु ने काशी की काष्ठ-कला से जुड़े परम्परागत रंगों का इस्तेमाल सीखा, जिसमें लाल, हरा, काला तथा नीला एवं मिले जुले रंगो का प्रयोग होता है।
पत्नी कुछ दिनों तक नाराज़ रही। ताने- उलाहने देती रही। फिर उसने अपने दिलो दिमाग को समझा लिया। पति का दिमाग अपनी ज़गह से कुछ फिर गया है। छिप-छिपाकर वह उसकी झाड़ फूंक करवाती। प्रत्यक्ष कहने का साहस नहीं हुआ पता नहीं इसकी क्या प्रतिक्रिया पति पर हो। पत्नी ने दूसरों के घर में बर्तन मांजने का काम शुरू कर दिया ताकि घर की आर्थिक स्थिति पहले जैसी बरकरार रहे।
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वह रात चांदनी रात थी और अजीब। बेचन की पत्नी अपने मायके गयी थी और बच्चे खाकर सो गये थे। बेचन ने नहा धोकर पेड़ की पूजा की थी और फिर आरी ले आया। रोशनी का इन्तजाम उसने पहले से कर रखा था। और रात भर आरी चलने की आवाज़ आती रही। जिससे वह लकड़ी बनाने का काम सीखता था उसे भी उसने बुला रखा अपने अन्य साथियों के साथ। सबकी मदद ली गयी और सुबह पेड़ का एक हिस्सा कटा पड़ा था, जो बेचन का पुश्तैनी पेड़ था और देवता भी, जिसकी उसने भी बचपन में पूजा की थी और सुख समृद्धि सहित न जाने कितनी ही फरमाइशें की थी।
उसने घर का एक कमरा पूरी तरह से खाली किया और उसमें पेड़ का कटा हुआ हिस्सा लोगों की मदद से उसके भीतर ले गया।
इसके बाद उसने बढ़ई के यहां काम पर जाना बंद कर दिया। अब उसका वह कमरा ही उसका कार्यक्षेत्र था। उसका साधना केन्द्र था, उसकी ज़िन्दगी की मंज़िल जैसे वहीं कही थीं।
दिन में तो वहां ठक्क-ठक्क की आवाज़ें आती ही देर रात तक वह वहां काम में मशगूल रहता।
वह वहां दरवाज़ा बना रहा था। अपनी पसंद का दरवाज़ा। वैसा दरवाज़ा जैसा शायद दुनिया में कहीं नहीं था। वैसा ही जैसा उसने स्वप्न में देखा था। कई बार वह दरवाज़ा बनाते बनाते वहीं सो जाता। नींद में वह दरवाज़ा खुलता जिसके उस पार एक सुन्दर लोक था।
उसने दरवाजा बनाया। उसकी चौखट लगायी। उस पर तरह तरह की नक्काशियां करता रहा। बचपन में वह स्कूल नहीं गया था। उसके हाथ में स्लेट पेंसिंल नहीं आयी थी जिस पर चित्र बनाता। उसने यह काम दरवाजे पर किया। जहां जो मन में आया उकेरता गया। मनचाही आकृतियां उकेरता गया। काट छांट करता गया। लकड़ियों की कमी नहीं थी। समय की कमी नहीं थी। चाहत और स्वप्न की भी कमी नहीं थी। उसे लगता काश यह दरवाज़ा बनकर कभी पूरा न हो क्योंकि उसमें तरह तरह की आकृतियां बनाने का अद्भुत अबोला सुख उसे मिलता था। उसे थकान महसूस नहीं होती थी और दुनिया की तमाम चिन्ताएं उसे नहीं व्यापती थीं।
कुछेक महीने बीते और उसका स्वप्नमय दरवाज़ा बनकर तैयार हो गया।
इस बीच पत्नी जब अपने मायके से लौटी तो हतप्रभ रह गयी थी। फिर धीरे-धीरे यह मान लिया था कि उसका मनोरोग पहले से बढ़ गया है। और तो और घर के देववृक्ष पर उसने आरी चलायी है और उनके कुल-खानदान पर उसका शाप लगना तय है। पता नहीं क्या बदा है तक़दीर में। घर का पूरा खर्च उठाना अब उसकी ज़िम्मेदारी थी जिसमें कई और घरों का काम करके भी वह पूरा नहीं कर पा रही थी। बेटी की शादी के लिए संचित रक़म घर खर्च में ही ख़त्म हो गयी।
हालांकि बातचीत से कहीं नहीं लगता था कि बेचन का दिमाग फिर गया है। वह पहले से अधिक खुश रहता। अच्छी और प्यारी बातें करता। कभी-कभी तो ठहाके लगाता। अपने बचपन की बातें करता। नदी, नालों, कबूतरों, नानी के गांव के नदी के तट का ज़िक्र करता। अपनी बेटी के भावी घर-वर के सपने संजोता। वह पहले से बेहतर इनसान लगता। बस कमी यही थी कि दरवाज़ा बनाने का उसके दिमाग़ पर अजीब सा फितूर चढ़ा हुआ था जिसके लिए उसने अपना काम-काज छोड़ दिया था और कुछ महीने की बढ़ईगिरी के प्रशिक्षण के आधार पर यदि लकड़ी का कुछ बनाता भी है तो क्या खाक बिकेगा। फ़िलहाल तो वह दान देने के लिए दरवाज़ा बना रहा है। चूंकि वह अपने पिता के वचन का पालन कर रहा था इसलिए कोई पुरज़ोर विरोध नहीं हुआ।
पहले तो कोई बेचन के कमरे में जाता नहीं था। एक बार बेटी गयी तो दरवाज़ा देखकर अवाक रह गयी। उसने अपनी मां और भाई को बताया। फिर तो पूरे गांव में उसके दरवाज़े की चर्चा थी। लोग देखने आते। तरह-तरह की सकारात्मक-नकारात्मक टिप्पणियां सुनायी देने लगीं। ज्यादातर लोगों ने तो उसके आकार प्रकार और अनगढ़ता के आधार पर उसे दरवाज़ा मानने तक से इनकार कर दिया। हालांकि उसके दरवाज़े की चर्चा गांव से निकलकर आस-पास के दूसरे गांवों तक जा पहुंची थी।
इसी बीच तहसील के गेस्ट हाउस में भारतीय लोक-कला पर शोध में लगा एक विदेशी विद्वान ठहरा था। गांव के कोहबर से लेकर काष्ठ शिल्प आदि पर जानकारियां जुटा रहा था। उसने बेचन के दरवाज़े के बारे में सुना तो उसके घर आया। बेचन का काम देखकर वह हैरत में था। उसने तरह-तरह के सवाल उससे किये। बेचन के जवाब ऐसे थे जिसकी उसने कल्पना नहीं की थी। एक ठेला चलाने वाला अपनी आजीविका का काम-काज छोड़कर इस प्रकार एक दरवाज़ा बनने के लिए साल भर से अधिक से जद्दोजहद कर रहा है। ककहरे से लेकर, गांव-जवार के तमाम पशु-पक्षी, खेत, खलिहान, फूल-फल, लोग- बाग सब एक ही दरवाज़े पर चित्रित थे। काष्ठ-शिल्प की एक बेजोड़ कृति इस छोटे से गांव में तैयार हो रही थी। यह देखकर वह रोमांचित हो उठा। उसने कई तस्वींरें ली। काम करता हुआ बेचन, अपने परिवार के साथ हंसता-मुस्कुराता बेचन और अपने नायाब दरवाजे के साथ बेचन।
विदेशी शोधकर्ता ने गांव वालों से भी बेचन के काम और जीवन के बारे में प्रतिक्रिया ली जो रोचक थी। ज़्यादातर लोगों ने उसके प्रति संवेदनशीलता तो जताई लेकिन कलाकार मानने से इनकार कर दिया। कई लोगों ने कहा कि उन्हें तो पता ही नहीं चल रहा है कि वह क्या बना रहा है। इस तरह के काष्ठ-शिल्प की गांव या इलाके में कोई परम्परा ही नहीं है। ऐसा पहली बार हो रहा है। बेचन जो कर रहा है यह कोई बहुत सीखी हुई कला नहीं है।
शोधकर्ता तो चला गया लेकिन उसके कुछ दिन बाद तक बेचन अपने गांव में एक खास व्यक्ति बना रहा। 
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बेचन अब अपने दरवाज़े को लेकर स्कूल जाने की तैयार कर रहा था। पास के कस्बे से मोटरवैन मंगाई गयी थी लेकिन ऐन वक्त पर मामले में थोड़ी पेंच आ गयी। दरवाज़ा इतना बड़ा था कि घर से बाहर निकले कैसे? आम दरवाज़ों की तुलना में डेढ़ गुना से भी ज्यादा। दरवाज़ा दरअसल पूरे कमरे में समा जाने को ध्यान में रखकर बनाया गया था। इस बात का ध्यान नहीं रखा गया था कि दरवाज़ा अमूमन कितना बड़ा होना चाहिए या फिर उसकी आम लम्बाई-चौडाई कितनी होती है। दरवाज़े के बाहर निकलने की मुश्किल की एक वज़ह यह भी थी कि बेचन ने सिर्फ़ दरवाज़ा नहीं बनाया था बल्कि चौखट भी बनायी थी और दरवाजे को कब्जों की सहायता से चौखट में जड़ दिया था और कुंडियां भी लगा दी थीं। जबकि घर में चौखट को पहले दीवार में लगाया जाता है और फिर चौखट में दरवाजे को कब्जा लगाकर जोड़ा जाता और अंत में सांकलें और कुंडियां लगायी जाती हैं।
बेचन ने जो दरवाज़ा बनाया था उसे कमरे से निकालने के लिए घर में लगा दरवाज़ा खोल दिया गया। वह जिस दीवार में लगा था उस दीवार को काफी हद तक तोड़ दिया गया। दरवाज़े के कारण यह एक नयी मुसीबत थी जो बेचन को उठानी पड़ी थी। उसकी पत्नी ने माना यह शाप है और आखिर दरवाज़े की वजह से पुश्तैनी घर का एक हिस्सा तोड़ना पड़ा।
लेकिन दरवाज़े को लेकर मुश्किलों का अन्त यह नहीं था।
जब दरवाज़ा स्कूल पहुंचा तो बेचन ने पाया कि स्कूल का नक्शा बदला हुआ है। स्कूल सरकारी हो गया था और उसके चार कमरे बनकर तैयार थे, जिनमें पहले ही दरवाज़े लगे हुए थे। अलबत्ता दो कमरे इधर नये बनाये जा रहे थे। बेचन ने जब दरवाज़ा स्कूल को भेंट करना चाहा तो प्रबंधन उसे लेने को तैयार नहीं हुआ। उसने काफी मिन्नतें कीं। अपने स्वर्गीय पिता का हवाला दिया कि यह उनकी ख्वाइश थी। यदि वह दरवाज़ा दान में नहीं दे पाया तो उनकी आत्मा को शांति नहीं मिलेगी।
प्रबंधन का कहना था कि फिर वे यह दरवाज़ा क्यों लें। जो दो कमरे बन रहे हैं उनके लिए दरवाज़े का बजट स्वीकृत  हो चुका है। दरवाज़ा बनाने का ठेका दिया जा चुका है और माप जोख हो चुकी है। उसका भुगतान किया जा चुका है। फिर इस दरवाज़े का क्या करेंगे। अगर स्कूल प्राइवेट होता तो हेरफेर किया जा सकता था किन्तु सरकारी स्कूल में एक भी कदम अपने मन से नहीं उठाया जा सकता। फिर भी यदि गांव के सरपंच कह दें तो विचार किया जा सकता है। दरवाज़ा स्कूल परिसर के बाहर ही रख दिया गया।
बेचन सरपंच के घर गया। पता चला कि वे दूसरे गांव गये हैं घर लौटने में रात हो जायेगी वह अगली सुबह आये।
दूसरे दिन तड़के ही बेचन सरपंच के घर पहुंचा। पहले तो वे राजी नहीं हो रहे थे किन्तु जब उसने अपने पिता का हवाला दिया तो वे पिघले। बेचन से दरवाज़ा दान में देने की मंशा की अर्जी लिखायी गयी। उस पर सरपंच ने अपनी संस्तुति लिखी। वह पत्र लेकर स्कूल प्रबंधन के पास गया। तब कहीं जाकर दरवाज़ा स्कूल प्रबंधन ने स्वीकार किया और उसे स्कूल परिसर में पीछे बने गोदाम में रखवा दिया गया।
बेचन ने जब प्रबंधन से अपने पिता के नाम पर दरवाजे के दान की रसीद मांगी तो प्रबंधन ने साफ इनकार कर दिया। उनका कहना था लिखित देने पर वे फंस सकते हैं। यह भी कोई दान हुआ। नगदी दो, ज़मीन दो, किताबें दो, बच्चों के लिए बस्ते दो कोई दिक्कत नहीं है। पर यह तो बेढब सा अगड़म-बगड़म बना दरवाज़ा है उसे किस आधार पर दान खाते में चढ़ायें।
बेचन अगले एक सप्ताह सरपंच से लेकर दूसरे गांव में रहने वाले विधायक तक दौड़ा तब जाकर कहीं उसे दान की रसीद प्राप्त हुई।
बेचन ने चैन की सांस ली। अपने पिता का वचन उसने निभाया है।
वह घर लौटा और अगले ही दिन से वह अपनी पुरानी आजीविका में लौट आया। वह हाथ ठेला खींचने के काम में लग गया। पत्नी व बच्चे खुश थे। उन्होंने मान लिया बेचन का दिमाग सही हो गया है।
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बेचन नियम से हर सप्ताह स्कूल जाता और इस बात का पता लगाता रहता कि कब उसकी दीवारें उठ रही हैं कब उसमें पलस्तर हो रहा है। उसे इन्तज़ार था स्कूल की दीवार में अपने दरवाज़े के लगाये जाने का किन्तु यह क्या। एक दिन उसने पाया कि नये बने दोनों कमरों में दो दूसरे दरवाज़े लगे हैं।
वह दौड़ा दौड़ा प्रबंधक के घर गया। अपनी शिकायत बतायी। प्रबंधक ने ज़वाब में उसे जली-कटी सुना दी-"यह कोई दरवाज़ा है? इतना घटिया दरवाज़ा मैंने आज तक नहीं देखा। क्या हाथी बांधने वाले कमरे में लगाने के लिए बनवाया था? सभी कमरों का आकार-प्रकार एक जैसा है तो क्या दरवाज़े बेमेल लगेंगे। आपने दान देना था, आपने दे दिया। हमें ज़रूरत नहीं थी फिर भी आपने दबाव डलवा कर उसे हम पर थोप दिया। अब आपका काम ख़त्म। अब हमारा पीछा छोड़ें और हमें यह निर्णय लेने दें कि उसका क्या करना है। अब नये कमरे इधर दो-चार दस साल बनने की गुंजाइश नहीं दिखायी देती और ना ही उतने बड़े आकार का दरवाज़ा लगाने की नौबत आने वाली है।
बेचन- "यदि आप उसे सचमुच नहीं लगायेंगे तो उसे मुझे वापस लौटा दीजिए। दरवाज़े की उपेक्षा मेरे पिता की भावना का अपमान है। आपको उनका अपमान करने का कोई हक़ नहीं है।
प्रबंधक-"अब यह नहीं हो सकता। यह कागज़ कलम में चढ़ गया है। दान में एक बार मिली वस्तुएं या रकम खाते में चढ़ जाती हैं तो उसका हिसाब सरकार के पास भेज दिया जाता है। उसका रिकार्ड भेजा जा चुका है अब हम उसे वापस करते हैं तो हमारी मुसीबत हो जायेगी। दान में दी हुई चीजों को वापस लेने की सोचना भी गुनाह है।
बेचन पर मानो मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा था। वह हेडमास्टर के घर गया फिर सरपंच के चक्कर लगाये और अन्त में विधायक के। हर ज़गह से उसे जली कटी सुनने को मिली। थक हार कर उसने राष्ट्रपति को पत्र लिखा। उस पत्र में उसने साफ़ साफ़ जिक्र किया था कि उसने अपने पिता की अन्तिम इच्छा पूरी करने के लिए कितनी मुश्किलें उठायी हैं। दरवाज़ा दान करने के लिए उसने बढ़ई का काम सीखा। जिस वृक्ष की पूजा उनका परिवार करता आया था उसका एक बड़ा हिस्सा काट डाला। महीनों की मेहनत से उसने दरवाज़ा बनाया। लेकिन उसके दान में दिये दरवाज़े का कोई उपयोग नहीं हो रहा है वह उपेक्षित पड़ा है और क्षतिग्रस्त हो रहा है जिसके कारण उसके पिता का अपमान हो रहा है। वह चाहता है कि यदि स्कूल दरवाज़े का इस्तेमाल नहीं कर पा रहा है तो उसे वापस दिला दिया जाये।
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उस दिन उसके घर के सामने लोगों का मजमा लग गया। विधायक, सरपंच, स्कूल के हेडमास्टर और प्रबंधक सब के सब उसके दरवाज़े पर हाथ जोड़े खड़े थे। और एक ट्रक उसके घर के सामने आकर लगा। जिससे उसका दरवाज़ा उतारा गया। बेचन से कहा गया कि कृपया वह यह साफ़ साफ़ लिखकर दे कि उसका दरवाज़ा सही स्थिति में सादर उसे अपने घर पर प्राप्त हो गया है। यह उस पत्र का कमाल था जो उसने राष्ट्रपति जी को लिखा था। सबने अपनी भूल-चूक के लिए उससे माफी मांगी और दरवाज़ा वहीं छोड़कर चलते बने।
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इस बीच बेचन लगातार दरवाज़ा प्रकरण में ही परेशान रहा था। अब जबकि दरवाज़ा लौट आया था उसकी मुश्किलें बढ़ गयी थीं। उसके सामने प्रश्न था इस विशालकाय दरवाज़े का वह क्या करे। रखे भी तो कहां। जिस कमरे में वह बना था दरवाज़े को बाहर निकालने के लिए उसकी एक दीवार तोड़ी गयी थी। वह अभी हाल ही में फिर से जोड़ दी गयी थी। पत्नी ने उसे इतनी जली- कटी सुनायी थी कि उसमें साहस न बचा था कि दुबारा दीवार तोड़कर दरवाज़े को घर के भीतर ले जाकर रखे। घर के बाहर पड़े रहने भी दें तो पानी से कैसे बचायेंगे। बारिश के दिन करीब थे। बारिश पड़ी तो वह पड़ा- पड़ा सड़ जायेगा।
बेचन की पत्नी ने कहा-"यह देववृक्ष को काटकर बना है। उसी का श्राप लगा है। श्राप के कहर से अपने परिवार को बचाने की आवश्यकता है। मैं पंडित जी से उपाय पूछती हूं। अब तो वे जो कुछ कहेंगे वही होगा।
बेचन चुपचाप सुनता रहा जिसका मतलब था उसे यह बात मंज़ूर है।
पंडित जी ने जो उपाय बताया वह कम खर्चीला नहीं था। हवन होगा। उनके नेतृत्व में पांच पंडित हवन करेंगे। दरवाज़े के आकार का हवनकुंड बनाया जायेगा। उसमें दरवाज़े को उसी रूप में अग्रि को समर्पित कर दिया जायेगा जिस रूप में वह है। यह देववृक्ष से बना है। देववृक्ष को काटकर बनाना महापाप था जिसके कारण बेचन का परिवार मुश्किल में फंसेंगे। छुटकारा पाने का उपाय है उसे अग्रि को समर्पित कर देना। वह जलकर राख हो जायेगा तो पाप भी जल जायेंगे। पंडितों को दक्षिणा देनी होगी, अंग वस्त्र देने होंगे और गांव भर को प्रसाद बांटना होगा।
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नियत दिन नियत समय पर हवन शुरू हो चुका था। गांव के ज्यादातर लोग उसमें शामिल थे। लगभग दस फुट लम्बा और छह फुट चौड़ा हवन कुंड बनाया गया था। नीचे आग जलाने का इन्तजाम था और मंत्रों के जाप के साथ जलते हवन-कुंड पर दरवाजे को लिटा दिया गया ताकि देववृक्ष के श्राप से मुक्ति मिले। अभी लकड़ियां हल्की सी झुलसी थीं और कहीं-कहीं आग पकड़ चुकी थी कि वहां दो कारें आकर रुकीं। कार से कई लोग उतरे और उन्होंने पहला काम यह किया कि हवनकुंड पर से दरवाज़े को फौरन हटवाया और उस पर पानी मरवाया। यह एक आकस्मिक विघ्न था। यह करवाने वाला और कोई नहीं बल्क़ि वह शोधकर्ता था जिसने महीनों पहले बेचन का इंटरव्यू और तस्वीरें ली थीं।
उसने जो कहानी बतायी वह दिलचस्प थी। उसकी शुरुआत खुश करने वाली और उसका अन्त बेचन को निराश करने वाला था।
शोधकर्ता ने बताया-बेचन का इंटरव्यू और दरवाज़े की तस्वीरें एक प्रसिद्ध अंतर्राष्टीय आर्ट मैगज़ीन में छपी। जिसका नतीज़ा यह हुआ कि दुनिया भर के आर्ट जगत में दरवाज़ा और उसका शिल्पकार सुर्खियों में आ गया। आर्ट और नायाब वस्तुओं की नीलामी से जुड़ी एक कम्पनी ने दरवाज़े को नीलाम करने के बारे में उससे पूछा तो उसने बेचन की ओर से हामी भर दी क्योंकि वह बेचन से मिल चुका था। उसकी माली हालत जानता था और सोचता था कि इस महान कलाकार के दिन बदलें। उसका नाम हो और उसे खूब पैसा मिले। और हां इससे उसे भी फायदा हो। स्वयं उसे नहीं अन्दाजा था कि नीलामी इतनी ऊंची कीमत तक जायेगी। यदि उसकी कट मनी को उसमें से काट लिया जाये तो भी बेचन को जो रकम इस दरवाज़े के लिए मिलने वाली है वह करोड़ों में है। वह इस दरवाज़े को लेने और उसकी क़ीमत चुकता करने आया है। नीलामीकर्ता कम्पनी का प्रतिनिधि भी साथ आया है।
लेकिन अब जबकि दरवाज़ा झुलस गया है और आंशिक तौर पर जल भी गया है उसकी कीमत हजार भी न लगे। अब यह आशंका है कि वह दरवाज़ा एक अधजली लकड़ी का टुकड़ा भर न मान लिया जाये। देर रात तक वे बातचीत करते रहे। बेचन की पत्नी रह-रह कर सुबकती। वह फूट-फूट कर रोयी थी। उसे पता नहीं था उसके पति ने रात-रात भर जागकर जो किया था वह एक महान कार्य था जिसकी क़ीमत करोड़ो में थी। वह सपने जो वह दरवाज़े के कारण देखता था उसी दरवाज़े से वे पूरे होने थे। रात को दरवाज़े को देववृक्ष के सहारे खड़ा कर दिया गया था। वे सब वहीं आसपास गांव वालों से मांगी गयी चौकियों पर सो गये। सुबह जब सूर्य की किरणों ने दरवाज़े को चूमा तो दरवाजे की दीप्ति देखने लायक थी। आग से झुलस कर दरवाज़े का रंग सुनहरा और जगह जगह से अजब सा काला हो गया था। उस पर बनी आकृतियों और सजीव हो उठी थीं। शोधकर्ता के लिए भी यह एक और चमत्कार था। उसने फौरन कैमरा संभाला और दरवाज़े की कई तस्वीरें लीं। उसने बेचन से कहा-शायद बात कुछ संभल सकती है। फिर बेचन को उन्होंने अपने साथ लिया और दरवाज़े को भी अपने साथ लाये वाहन में लादा और शहर की ओर निकल पड़े। कोई नहीं जानता था कि क्या होने वाला है।
बेचन की पत्नी रोज राह तकती। और देववृक्ष से सब कुछ ठीक ठाक होने की मन्नतें मांगती। गांव के लोग भी बेचन से जुड़ी खबर को जानना चाहते थे। कुछ माह गुजरे। फिर वह दिन भी आया कि बेचन एक शानदार कार से घर के सामने उतरा।
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 अगले दिन उस स्कूल की नयी इमारत का उद्घाटन होने वाला था। उसमें विशेष मेहमान कोई और नहीं बल्कि बेचन था। उसी ने उद्घाटन का फीता काटा था। आखिर स्कूल का नाम अब उसी के पिता के नाम पर था। उसने स्कूल को बीस लाख रुपये का चंदा दिया था।
दरअसल झुलसने के बाद दरवाज़े की फिर से नीलामी की गयी थी। उसे दुर्घटना का नाम नहीं दिया गया था बल्कि कहा गया था कि शिल्पकार ने नया आधुनिक टच दिया है। कीमत पहले से दुगुनी लगी थी।
बेचन के सारे सपने दरवाज़े से ही पूरे हो गये। वह उन कलाकारों में से था जिसकी पहली ही कृति को इतनी ऊंची कीमत मिली थी। और पहली ही कृति से अंतर्राष्ट्रीय पहचान बन गयी थी।
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